वेद का अर्थ ज्ञान होता है. वेद को ज्ञान का सर्वोच्च शिखर भी कहा जाता है . और ज्ञान ही ब्रह्म कास्वरुप है. इस तरह वेद और परमात्मा भिन्न नहीं है . और परमात्मा के लिए उपनिषद कहतें है ----
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।।
जैसे ब्रह्म अनवद्य और अनामय है, वैसे ही वेद भी है; अतः वेदमें कोई ऐसी बात नहीं हो सकती जो मनुष्य के लिए परम कल्याणमयी न हो. जब ब्रह्म ही शांत और शिवरूप है तब उसीका ज्ञान वेद अशिवरूप कैसे हो सकता है ?
कोई भी सामान्य विचारशील आदमी भी विवेक का उपयोग करे तो उसे जीव हिंसा अनुचित लगनेलगती है . यहाँ तक की मांसाहारी लोग भी अगर पशुओं को निर्ममतापूर्वक काटे जाते हुए देख लें तो शायद ज्यादातर मांसाहारी जो की परंपरा से मांसाहारी नहीं है मांसाहार करना छोड़ दें. सामान्य संवेदना भी जिसमें है वह भावनाशील व्यक्ति भी किसी की हिंसा करना तो दूर रहा उसे देखना भी पसंद नहीं कर सकता. ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है की सामान्य भावशीलता केरहते जो कर्म अनुचित लगता है, उस कर्म का समर्थन, उद्दात्त और स्वाभाव से ही प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करने वाली भारतीय संस्कृति के आधार-ग्रंथों में किस प्रकार हो सकता है.
यहाँ यह भी उतना ही सत्य है कि कुछ परम आदरणीय आचार्यों और महानुभावों ने भी किन्हीकिन्ही शब्दों का मांस-परक अर्थ किया है. इसका सबसे प्रधान कारण यह है कि उनमें से अधिकाँश परमार्थवादी साधक थे. गूढ़ आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विषयों पर विशेष द्रष्टि रखकर उनका विषद अर्थ करने पर उनका जितना ध्यान था, उतना लौकिक विषयों पर नहीं था. इसलिए उन्होंने ऐसे विषयों का वही अर्थ लिख दिया है जो देश कि परिस्थितिविशेष में उस समय अधिकाँश में प्रचलित था.
लेकिन इसका मतलब बिलकुल भी यह नहीं है कि वेद में यह अनाचार निर्दिष्ट है. कारण वही कि वेद साक्षात ब्रह्म का स्वरुप होने से पूर्ण है तथा उनको समझने का प्रयत्न करने वाला जीव अपूर्ण तथा अल्पज्ञ .
वेद कि पूर्णता का ज्ञान इस हानिकर तथ्य से भी होता है कि असुर प्रकृति के वैचारिक भी अपने मत के स्थापन के लिए वेद को ही प्रमाण बतलातें है और प्रथम द्रष्टतया यह प्रमाणिक भी भासता है.
पर ऋषियों ने वेदार्थ को समझने के लिए कुछ पदत्तियाँ निश्चित की हैं; उन्हीके हिसाब से चलकर ही हमें श्रद्धापूर्वक वेदार्थ को समझने की साधना करनी चाहिये
देवसंस्कृति के मर्मज्ञ ऋषियों ने इसी कारण से वेदाध्ययन करने वालों के लिए दो तत्व अनिवार्य बताए हैं—श्रद्धा एवं साधना. श्रद्धा की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आलंकारिक भाषा में कहे गए रूपकों के प्रतिमान—शाश्वत सत्यों को पढ़कर बुद्धि भ्रमित न हो जाय. साधना इस कारण आवश्यक है कि श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परिधि से भू ऊपर उठकर मन ‘‘अनन्तं निर्विकल्पम्’’ की विकसित स्थिति में जाकर इन सत्यों का स्वयं साक्षात्कार कर सके. मंत्रों का गुह्यार्थ तभी जाना जा सकता है.
ऋग्वेद में लिखा है -- ' यज्ञेन वाचं पदवीयमानम्' अर्थात समस्त वेदवाणी यज्ञ के द्वारा ही स्थान पाती है. अतः वेद का जो भी अर्थ किया जाये, वह यज्ञ में कहीं-न-कहीं अवश्य उपयुक्त होता हो- यह ध्यान रखना आवश्यक है. वेदार्थ के औचित्यकी दूसरी कसौटी है ---
'बुद्धिपूर्वा वाक्प्रकृतिर्वेदे' (वैशेषिकदर्शन)
अर्थात वेदवाणी की प्रकृति बुद्धिपूर्वक है. वेदमंत्र का अपना किया हुआ अर्थ बुद्धिके विपरीत न हो - बुद्धि में बैठने योग्य हो, इस बात पर भी ध्यान रखने की जरुरत है.
साथ ही यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है की हमने जो अर्थ किया है, वह तर्क से सिद्ध होता है या नहीं. स्म्रतिकार भी कहतें है - ''यस्तर्केणानुसन्ध्त्ते स धर्मं वेद नापरः'
' जो तर्क से वेदार्थ का अनुसंधान करता है, वही धर्म को जानता है, दूसरा नहीं' अतः समुचित तर्क से समीक्षा करना वेदार्थ के परिक्षण का तीसरा मार्ग है.
चौथी रीति यह है कि इस बात पर नज़र रखी जाए कि हमारा किया हुआ अर्थ शब्द के मूलधातु के उलट तो नहीं है; क्योंकि निरुक्तकार ने धातुज अर्थ को ही ग्रहण किया है . इन चारों हेतुओं को सामने रखकर यदि वेदार्थ पर विचार किया जाये तो भ्रम कि संभावना नहीं रहती है ऐसा महापुरषों ने निर्देशित किया है.
संस्कृत भाषा कि वैदिक और लौकिक इन दो शाखाओं में से वेदकी भाषा प्रथम शाखा के अंतर्गत है.
वेद कि भाषा अलौकिक है और इसके शब्दरूपों में लौकिक संस्कृत से पर्याप्त अंतर है. इसलिए वेदों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ में अनेक भ्रांतियां भी है.
वैदिक शब्दों के गूढ़ अर्थों के स्पस्थिकरण के लिए 'निघंटु' नाम के वैदिक भाषा के शब्दकोष कीरचना हुई तथा अनेक ऋषियों ने 'निरुक्त' नाम से उसके व्याख्या-ग्रन्थ लिखे.
महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में अट्ठारह निरुक्तों के उद्धरण दियें है. इससे पता चलता है कि गूढ़ वैदिक शब्दों कि अर्थाभिव्यक्ति के लिए अट्ठारह से ज्यादा निरुक्त-ग्रंथों कि रचना हो चुकी थी.
वेदार्थ निर्णय में महर्षि यास्क ने अर्थगूढ़ वैदिक शब्दों का अर्थ प्रकृति-प्रत्यय-विभाग कि पद्दति से स्पष्ट किया है.
इस पद्दति से अर्थ के स्पष्ठीकरण में यह सिद्ध करने का उनका प्रयास रहा है कि वेदों में भिन्नार्थक शब्दों के योग से यदि मिश्रित अर्थ कि अभिव्यक्ति होती है तो गुण-धर्म के आधार पर एक ही शब्द विभिन्न सन्दर्भों में विभिन्न अर्थों का द्योतन करता है.
उदहारण के लिए निरुक्त के पंचम अध्याय के प्रथम पाद में 'वराह' शब्द का निर्वचन दृष्टव्य है.
संस्कृत में 'वराह' शब्द शूकर के अर्थ में ही प्रयुक्त है, पर वेदों में यह शब्द कई भिन्न अर्थों में भी प्रयुक्त है. जैसे --
१. 'वराहो मेघो भवति वराहार:'
----- मेघ उत्तम या अभीष्ट आहार देने वाला होता है, इसीलिए इसका नाम 'वराह' है.
२. 'अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव। वृहति मूलानि। वरं वरं मूलं वृह्तीति वा।' 'वराहमिन्द्र एमुषम्'
----- उत्तम-उत्तम फल, मूल आदि आहार प्रदान करने वाला होने के कारण पर्वत को भी 'वराह'कहतें है.
३. ' वरं वरं वृहती मूलानी'
----- उत्तम-उत्तम जड़ों या औषधियों को खोदकर खाने के कारण शूकर 'वराह' कहलाता है.
हिंदी में 'गो' शब्द गाय के अर्थ में ही प्रयुक्त है पर संस्कृत में गाय और इन्द्रिय के अर्थ में प्रयुक्त है. वही वेदों में 'गो' गाय तथा इन्द्रिय के अर्थ में तो है ही, महर्षि यास्क के अनुसार 'गौर्यवस्तिलो वत्सः' अर्थात गो 'यव' के और तिल 'वत्सः' के अर्थ में भी प्रयुक्त है.
सभी जानतें है, की लगभग सभी भाषाओँ में अनेकार्थी शब्द होतें है. काव्य में उनका अलंकारिक प्रयोग भी किया जाता है और सहज रूप से भी वे भाषा में प्रयुक्त होते रहतें है. उनका सन्दर्भ के अनुरूप कोई एक अर्थ ही निकाला जाता है. दूसरा अर्थ निकालना अपने अज्ञान या भाषा के प्रति अन्याय का ही प्रमाण होता है.
तर्क और बुद्धि से भी यही बात मालूम होती है की वेद हिंसात्मक या अनाचारात्मक कार्यों के लिए आदेश नहीं दे सकतें है. यदि कहीं कोई ऐसी बात मिलती भी है तो वह अर्थ करने वालों की ही भूल है .
प्राय यज्ञ में पशुवध की बात बड़े जोर शोर से उठायी जाती है. पर यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम मिलतें है, उनसे यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक ही होते आयें है.
निघंटु में यज्ञ के १५ नाम दियें है -
१. यज्ञ --- यह यज् घातु से बना है. यज् देवपूजा-संगतिकरण-दनेशु- यह सूत्र है. देवों का पूजन अर्थात श्रेष्ठ प्रवृति वालों का सम्मान अन्सरन करना , प्रेमपूर्वक हिलमिल कर सहकारिता से रहना यज्ञ है.
२. वेनः --- वें-गति-ज्ञान-चिंता-निशामन वादित्र- ग्रहणेषु अर्थात गति देने, जानने, चिंतन करने,देखने, वाध्य बजने तथा ग्याहन करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है.
३. अध्वर: --- 'ध्वरति वधकर्मा ' 'नध्वर:' इति अध्वर' - अर्थात हिंसा का निषेध करने वाला . इस संबोधन से भी स्पष्ट होता है की हिंसा का निषेध करने वाले कर्म के किसी अन्य नाम का अर्थ भी हिन्सापरक नहीं हो सकता है. सभी जानतें है की यज्ञ कर्म में भूल से भी कोई कर्मी-कीट अग्नि से मर ना जाये इसके लिए अनेक सावधानियां बरती जाती है. वेदी पर जब अग्नि की स्थापना होती है तो उसमें से थोड़ी सी आग निकालकर बाहर रख डी जाती है की कहीं उसमें'क्रव्याद' (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली आग ) के परमाणु न मिल गएँ हो, इसकेलिए'क्रव्यादांशं त्यक्त्वा' होम की विधि है.
४. मेध: --- मेधृ- मेधा, हिंसनयो: संगमे च --- मेधा(बुद्धि) का संवर्धन, हिंसा और संगतिकरण इसके अर्थ है. अब जब यह यज्ञ अर्थात अध्वर: का पर्यायवाची संबोधन है तो यज्ञीय सन्दर्भ में इसका अर्थ हिन्सापरक लेना सुसंगत किस तरह होगा ?
५. विदध् -- विद ज्ञाने सत्तायाम, लाभे, विचारणे, चेतना-आख्यान-निवासेषु।
६. नार्यः --- नारी 'नृ -नये' मनुष्यों के नेतृत्व के लिए, उन्हें श्रेष्ट्र मार्ग पर चलने के अर्थ में प्रयुक्त होता है.
७. सवनम् --- सु-प्रसवे-एश्वर्यो: ---- प्रेरणा देन, उत्पन्न कर्ण और प्रभुत्व प्राप्त करना.
८. होत्रा--- हु-दान-आदानयो:, अदने -- सहायता देना, आदान-प्रदान करना एवं भोजन करना इसके भाव है.
९. इष्टि , १०. मख: , ११. देव-ताता , १२. विष्णु , १३. इंदु , १४. प्रजापति , १५. घर्म:
उक्त सभी संबोधनों के अर्थ देखने से भी यही निष्कर्ष निकलता है की यज्ञ में हिंसक कर्मों का समावेश नहीं है. एक सिर्फ मेध शब्द का एक अर्थ हिंसापरक है लेकिन यज्ञीय सन्दर्भ में उसकी संगती अन्य पर्यायवाची शब्दों के अनुसार ही होगी ना की अनर्थकारी असंगत हत्या के अर्थ में.
यहाँ थोडा विचार आलभन और बलि शब्दों पर भी कर लेना चाहिये.
आलभन का अर्थ स्पर्श, प्राप्त करना तथा वध करना होता है. पर वैदिक सन्दर्भ में इसका अर्थ वध के सन्दर्भ में असंगत बैठेगा जैसे की ---
'ब्राह्मणे ब्राह्मणं आलभेत'
' क्षत्राय राजन्यं आलभेत'
इसका सीधा अर्थ होता है ' ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण को प्राप्त करें, उसकी संगती करें और शौर्य के लिए क्षत्रिय को प्राप्त करें उसकी संगती करें.
पर यदि आलभेत का अर्थ वध लिया जाये तो बेतुका अर्थ बनता है, ' ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण तथा शौर्य के लिए क्षत्रिय का वध करें'
बलि --- इस शब्द का अर्थ भी वध के अर्थ में निकाला जाने लगा है , जबकि वास्तव में सूत्र है -- बलि-बल्+इन् , अर्थात आहुति,भेंट, चढ़ावा तथा भोज्य पदार्थ अर्पित करना.
हिन्दू ग्राहस्थ के नित्यकर्मों में 'बलि वैश्व देवयज्ञ' का विधान है. इसमें भोजन का एक अंश निकालकर उसे अग्नि को अर्पित किया जाता है, कुछ अंश निकालकर पशुपक्षियों व चींटियों के लिए डाला जाता है . बलि कहलाने वाली इस क्रिया में किसी जीव का वध दिखाई देता है या दुर्बल जीवों को भोजन द्वारा बल-पोषण देना दिखाई देता है ?
स्पष्ट है 'बलि' बलिवैश्व के रूप में अर्पित अन्नादि ही है. बलि का अर्थ 'कर-टैक्स' भी होता है.
रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप की शाशन व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है ----
प्रजानेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत सहस्रगुणमुत्स्रष्ठुम आदत्ते हि रसं रवि:
यहाँ भी बलि का प्रचलित अर्थ किया जाय को कैसा रहेगा ?????
श्राद्ध कर्म में गोबली, कुक्कुर बलि, काकबलि, पिपिलिकादी बलि, का विधान है उसमें गौ, कुत्ता,कौआ और चींटी के लिए श्रद्धापूर्वक भोज्यपदार्थ अर्पित किया जाता है ना की उनके वध किया जाता है.
वृहत्पाराषर में कहा गया है की श्राद्ध में मांस देने वाला व्यक्ति मानो चन्दन की लकड़ी जलाकर उसका कोयला बेचता है. वह तो वैसा ही मूर्ख है जैसे कोई बालक अगाध कुँए में अपनी वस्तु डालकर उसे वापस पाने की इच्छा करता है.
श्रीमद्भागवत में कहा गया है की न तो कभी मांस खाना चहिये, न श्राद्ध में ही देना चहिये.
वेदों की तो यह स्पष्ट आज्ञा है कि--- "मा हिंस्यात सर्व भूतानि " (किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे).