मह्रिषी दयानंद सरस्वती |
इन्द्रो॒ विश्व॑स्य राजति। शन्नो अस्तु द्वि॒पदे॒ शं च॑तुष्पदे॥
य॰ अ॰ ३६ । मं. ८ ॥
तनोतु सर्वेश्वर उत्तम्बलं गवादिरक्षं विविधं दयेरितः।
अशेषवघ्नानि निहत्य नः प्रभूः सहायकारी विदधातु गोहितम् ॥ १॥
ये गोसुखं सम्यगुशन्ति धीरास्ते धर्म्मजं सौख्यमथाददन्ते।
क्रूरा नराः पापरता न यन्ति प्रज्ञाविहीनाः पशुहिंसकास्तत् ॥ २ ॥
वे धर्मात्मा लोग धन्य हैं, जो ईश्वर के गुण, कर्म्म, स्वभाव, अभिप्राय, सृष्टि क्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण और आप्तों के आचार से अविरुद्ध चलके सब संसार को सुख पहुंचाते हैं। और शोक है उन पर जो कि इनसे विरुद्ध चलके स्वार्थी दयाहीन होकर जगत् में हानि करने के लिए वर्त्तमान हैं। पूजनीय जन वे हैं कि जो अपनी हानि होती तो भी सब के हित के करने में अपना तन, मन, धन लगाते हैं। और तिरस्करणीय वे हैं जो अपने ही लाभ में संतुष्ट रहकर सबके सुखों का नाश करते हैं।................................. और आगे पढने के लिए निम्न लिंक पर जाएँ:
"गौ करूणानिधि"
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